इस ब्रह्मांड में हम अकेले नहीं हैं तो वे सभ्यताएं कहां हैं, जो हमारी जैसी या शायद उससे भी बेहतर हैं? उड़न तश्तरियां कहां से आती हैं? वे कल्पनाएं नहीं हैं तो उन्हें चलाने वाले हमारे रेडियो संकेतों का जवाब क्यों नहीं देते.
अमेरिका के प्रोफ़ेसर फ़्रैंक ड्रेक को भी यही प्रश्न कुरेदा करते थे. आज से पचास साल पहले, 1960 में, जब वे तीस साल के भी नहीं थे, तब उन्होंने एक रेडियो टेलिस्कोप की मदद से पहली बार पृथ्वी से परे इतरलोकीय सभ्यता की आहट लेनी चाही. सोचा, उन्हें कुछ इस तरह की आवाज़ें सुनाई पड़ेंगी. वह बताते हैं, "मेरे पहले प्रयोग का नाम था प्रॉजेकट आज़मा. हमने दो महीनों तक सूर्य जैसे दो तारों की दिशा में रेडियो संकेतों की खोज की. लेकिन हमें कुछ नहीं मिला."
कोई सुराग नहीं
फ्रैंक ड्रेक को आज तक ऐसा कुछ नहीं मिला है, जिसके बारे में भरोसे के साथ कहा जा सकता कि वह किसी Bildunterschrift: Großansicht des Bildes mit der Bildunterschrift: दूसरी दुनिया के सभ्य लोगों की पैदा की हुई रेडियो तरंग है. रेडियो तरंगें तो ढेरों मिलती हैं, लेकिन वे आकाशीय पिंडों द्वारा स्वयं पैदा की हुई प्राकृतिक तरंगें होती हैं. तब भी, फ्रैंक ड्रेक की जिज्ञासा और लगन की कोख से विज्ञान की एक नई शाखा का जन्म हुआ, जैवखगोल विज्ञान (बायोएस्ट्रॉनॉमी) का. विज्ञान की यह नई शाखा अंतरिक्ष में संभावित जीवन की खोजबीन को समर्पित है.
फ्रैंक ड्रेक सन फ्रांसिस्को के तथाकथित सेती इस्टीट्यूट के लिए काम करते हैं. SETI का अर्थ है Search for Extraterrestrial Intelligence, यानी, पृथ्वी से परे बुद्धिधारियों की खोज. आज से पैंतालीस साल पहले 8 अप्रैल 1965 के दिन सेती ने तश्तरीनुमा बड़े बड़े रेडियो एंटेनों की सहायता से अंतरिक्ष में बुद्धिधारी प्रणियों की खोज शुरू की.
भ्रम टूटा
दो ही साल बाद, 1967 में वैज्ञानिकों को लगा कि बटेर हाथ लग गयी. तब अख़बारों की सुर्खियां कुछ इस तरह की थीं. "डॉक्टरेट कर रही महिला वैज्ञानिक ने हरे आदमियों का पता लगा लिया." "हम अंतरिक्ष में अकेले नहीं हैं." "खगोलविदों ने नई दुनिया खोज निकाली."
उस महिला वैज्ञानिक का नाम था जोसेलिन बेल. लेकिन, सारी ख़ुशी पर तब पानी फिर गया, जब पता चला कि जिस रेडियो पल्स (स्पंद) को किसी सभ्यता का संकेत समझा जा रहा था, वह वास्तव में एक मृत न्यूट्रॉन तारे से आ रहा था. न्यूट्रॉन तारे ऐसे ठोस पिंड होते हैं, जो बहुत तेज़ी से घूमते हैं और साथ ही बहुत ही कसी हुई रेडियो तरंगों की कौंध सी पैदा करते हैं. इसीलिए उन्हें पल्सर भी कहा जाता है.
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